‘आपदा’ में अवसर या आपदा में ‘आलोचना’

भोपाल (सुरेश शर्मा)। कुछ घटनाओं को याद करना होगा तब बात सही दिशा में जायेगी। कोरोना का पहला दौर आया था तब अनुभव नहीं था। तब ईलाज और व्यवस्थाएं नहीं थी। इसलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खुद कमान संभाली और देश को सुरक्षित महामारी से निकाल लिया था। विश्व में हमारी साख बढ़ी थी। जब वैक्सीन निर्माण में भारत ने विश्व के साथ कदमताल किया तब भी हमें गौरव की अनुभूति हुई थी। उन्हीं दिनों एक मांग उठी थी। यह मांग थी कांग्रस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की ओर से। उन्होंने कहा था कि प्रधानमंत्री सब मूंह भरना चाह रहे हैं यह काम तो राज्यों से कराना चाहिए था। सफलता में राज्यों को भी शामिल करना चाहिए। प्रधानमंत्री ने राज्यों की सरकारों को भी श्रेय दिया। लेकिन जब दूसरी वेव आई तब कमान राज्यों के हाथ में ही है। राहुल गांधी की बात को मान लिया गया। लेकिन अब समीक्षक प्रधानमंत्री को आइना दिखाने के प्रयास में हैं कि यह क्या हो गया? सभी मिलकर काम करते हैं और जिसके पास वैश्विक सोच है वह नियंत्रक के रूप में रहता है तब सफलता का प्रतिशत ज्यादा रहता है। इस बार उसमें कमी दिखाई दे रही है। फिर भी प्रधानमंत्री को मूक दर्शक होकर नहीं कोई बड़ा व प्रभावशाली निर्णय लेकर अपनी भूमिका को रेखांकित करना चाहिए।

पिछले दिनों से देश के नेतागण यह मांग कर रहे हैं कि वैक्सीन मामले में आयु सीमा का बंधन हटा लेना चाहिए। यह 130 करोड़ का देश है। जिसमें एक साथ इतनी व्यवस्था करना किसी भी स्वरूप में संभव नहीं है। पहले साठ साल और गंभीर बीमारों का रास्ता खोला गया। उपलब्धता सुधरने पर यह आयु 45 साल कर दी गई। अब जब विश्व की अन्य वैक्सीन आयात का रास्ता खुल गया और भारत में बड़ी संख्या में वैक्सीन लग गई तब मतदान की आयु को आधार मान लिया गया। एक बड़ा निर्णय यह भी हुआ है कि वैक्सीन का सरकारीकरण करने की बजाये उसे बाजार के लिए भी खोल दिया जायेगा? मतलब बाजार में भी वैक्सीन उपलब्ध रहेगी। जिसको सीधे लगवाना है वह सीधे भी लगवाये और बाजार में जाकर लगवाये तो बाजार भी खुला है। सरकार ने मूल्य नियंत्रण का अपना अधिकार सुरक्षित रखा है। इसमें राहुल गांधी की मांग को प्रधानमंत्री ने स्वीकार कर लिया यह प्रचारित किया जा रहा है। यह भी खुशी की बात है कि विपक्ष के नेता इसी बात से खुश हैं। वे सरकार के कदमताल के साथ चाहे न हों लेकिन वे उसमें अपनी उपलब्धि तो देख ही रहे हैं।

दिन भर आलोचना करके प्रधानमंत्री को आइना दिखाने की बात करने वाले विशेष प्रकार के समूह को जनमानस की स्थिति का भी आंकलन करना चाहिए। व्यवस्थाओं मांग और व्यवस्था की आपूर्ति की तुलना में सब देखना चाहिए कि जिस गति से संक्रमित आये हैं क्या उसका अनुमान लगाया जा सकता था? पूर्वानुमान भी इतनी तेज फैलने के नहीं लग सकते थे। फिर भी आपदा में अवसर देखने वाले मुनाफाखोरी करने लग गये और आपदा में आलोचना करने वाले टवीट करने लग गये। जिनको व्यवस्थांए सुधारना हैं वे उसे सुधारने के लिए उपाय तलाशने में लग गये। यही भारत की राजनीति का अन्तर है और यह समीक्षकों की सोच को भी दर्शाता है।

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