‘आंदोलन’ की असफलता पर हिंसक होते ‘किसान’
किसान नेताओं के पास कानूनों को क्यों वापस लिया जावे इसका कोई तर्क नहीं है? सरकार का कहना है कि किसान नेता बताएं कि कानून में क्या गलत है और सरकार से क्या चाहते हैं? लेकिन मीडिया के सामने और सरकार के सामने जब तक विषय को स्पष्ट नहीं किया जाएगा सरकार कोई बदलाव करने की स्थिति में कैसे आ सकती है? अब तो न्यायालय की जांच समिति की रिपोर्ट भी आ चुकी है। न्यायालय उसकी समीक्षा करके अपना निर्णय सुना कर आन्दोलन को समाप्त करवा सकता है लेकिन किसान नेता उसे भी मानेंगे या नहीं इस पर संशय है। इसलिए सर्वोच्च भी पहल करने से बच रहा है। अब जब किसान आन्दोलन की हवा खत्म हो गई और राजनीतिक प्रयासों से उसकी छवि को बट्टा लगा है तब किसान नेताओं के किसानों की भावनाओं के साथ खेलना शुरू कर दिया है। करनाल की घटनाओं में इसका सच देख सकते हैं। मिनी सचिवालय को घेरना तो आन्दोलन का हिस्सा हो सकता है लेकिन हिंसक होना आन्दोलन का हिस्सा नहीं हो सकता। यह तो कानून व्यवस्था का हिस्सा है जिसको पुलिस प्रशासन को रोकने का अधिकार है।
करनाल में जुटे किसान नेताओं के भाषणों को देखकर निर्णय लिया जा सकता है कि उन्हें दिल्ली के बार्डर से हटकर प्रदेशों में क्यों हिंसक होना पड़ रहा है? इससे किसानों की आत्मा को झकझौरा जाए और अपनी राजनीतिक रोटी के लिए फिर से तवा चढ़ाया जा सके। चुनाव में किसान नेताओं ने केन्द्र की सरकार चला रही भाजपा का विरोध किया लेकिन परिणाम को प्रभावित नहीं कर पाए। यूपी में भी जब टिकैत परिवार को पता चल गया कि यहां विरोध में उतरने का असर ठीक नहीं हो पाएगा तब हरियाणा और राजस्थान के किसानों की भावनाओं के साथ खेला जा रहा है। यह तो अब हर कोई मान रहा है कि जिस भावना से किसान आन्दोलन शुरू हुआ वह तो अब असफल हो गई है।