‘आंदोलन’ की असफलता पर हिंसक होते ‘किसान’

भोपाल (सुरेश शर्मा)। किसान स्वाभिमानी होता है लेकिन हिंसक नहीं हो सकता। यह बात सरकार भी जानती है और आन्दोलन कर रहे किसान नेता भी। इसलिए किसान नेताओं ने अपने आन्दोलन को असफल होने से रोकने के लिए किसानों के स्वाभिमान को चुनौती देने का प्रयास शुरू किया है। करनाल में चल रहे आन्दोलन में ऐसा ही कुछ दिखाई दे रहा है। किसान नेताओं का आन्दोलन पर नियंत्रण नहीं रहा क्योंकि वह नेतृत्व तो घूम फिरकर राकेश टिकैत के आसपास पहुंच गया है। वे नेता जो आन्दोलन की शुरूआत करके दिल्ली बार्डर पर आये थे वे सब हासिए पर चले गये हैं और आन्दोलन का चेहरा राकेश हो गए हैं। इससे आन्दोलन की सफलता की संभावना समाप्त सी हो चली है। दस महीने के आन्दोलन के बाद सरकार ने चुप्पी साध ली तो आन्दोलन करने वाले इसमें हिंसा डालने का प्रयास कर रहे हैं। किसान स्वाभिमानी है इसलिए उसके अहंम को ललकारने वाले भाषण दिए जा रहे हैं और जब तक दिए जा रहे हैं जब तक वह उत्तेजित होकर कोई न कोई कदम न उठा ले। करनाल में ऐसा ही दिखाई दे रहा है। किसान नेताओं की मांग की पूर्ति लगातार हो रही है। एमएसपी की बढ़ोतरी हर बार करके केन्द्र सरकार किसानों के प्रति अपना सम्मान दिखाने का प्रयास कर रही है। देश का किसान लाभान्वित भी हो रहा है।

किसान नेताओं के पास कानूनों को क्यों वापस लिया जावे इसका कोई तर्क नहीं है? सरकार का कहना है कि किसान नेता बताएं कि कानून में क्या गलत है और सरकार से क्या चाहते हैं? लेकिन मीडिया के सामने और सरकार के सामने जब तक विषय को स्पष्ट नहीं किया जाएगा सरकार कोई बदलाव करने की स्थिति में कैसे आ सकती है? अब तो न्यायालय की जांच समिति की रिपोर्ट भी आ चुकी है। न्यायालय उसकी समीक्षा करके अपना निर्णय सुना कर आन्दोलन को समाप्त करवा सकता है लेकिन किसान नेता उसे भी मानेंगे या नहीं इस पर संशय है। इसलिए सर्वोच्च भी पहल करने से बच रहा है। अब जब किसान आन्दोलन की हवा खत्म हो गई और राजनीतिक प्रयासों से उसकी छवि को बट्टा लगा है तब किसान नेताओं के किसानों की भावनाओं के साथ खेलना शुरू कर दिया है। करनाल की घटनाओं में इसका सच देख सकते हैं। मिनी सचिवालय को घेरना तो आन्दोलन का हिस्सा हो सकता है लेकिन हिंसक होना आन्दोलन का हिस्सा नहीं हो सकता। यह तो कानून व्यवस्था का हिस्सा है जिसको पुलिस प्रशासन को रोकने का अधिकार है।

करनाल में जुटे किसान नेताओं के भाषणों को देखकर निर्णय लिया जा सकता है कि उन्हें दिल्ली के बार्डर से हटकर प्रदेशों में क्यों हिंसक होना पड़ रहा है? इससे किसानों की आत्मा को झकझौरा जाए और अपनी राजनीतिक रोटी के लिए फिर से तवा चढ़ाया जा सके। चुनाव में किसान नेताओं ने केन्द्र की सरकार चला रही भाजपा का विरोध किया लेकिन परिणाम को प्रभावित नहीं कर पाए। यूपी में भी जब टिकैत परिवार को पता चल गया कि यहां विरोध में उतरने का असर ठीक नहीं हो पाएगा तब हरियाणा और राजस्थान के किसानों की भावनाओं के साथ खेला जा रहा है। यह तो अब हर कोई मान रहा है कि जिस भावना से किसान आन्दोलन शुरू हुआ वह तो अब असफल हो गई है।

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